गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

स्त्री = योनी + स्तन = इज़्ज़त ?

पुरुष के वहशीपने से स्त्री की इज़्ज़त नहीं लुटती
पुरुष के वहशीपने से स्त्री की इज़्ज़त नहीं लुटती


“इज़्ज़त का लुटना” एक ऐसा वाक्य-प्रयोग है जिसे बॉलीवुड की फ़िल्मों में अक्सर सुना जा सकता है। निर्देशक ऐसे संवाद नायिका से भी बुलवाता है: “उसने मेरी इज़्ज़त लूट ली”; और खलनायक से भी: “मैं तेरी इज़्ज़त लूंगा”। हालांकि हमारे सभी धर्म इस बारे में एकमत हैं कि इज़्ज़त या प्रतिष्ठा जन्म से नहीं बल्कि कर्म से होती है; लेकिन फिर भी न जाने क्यों हमारा समाज और सिनेमा स्त्रियों के संदर्भ में “इज़्ज़त” को केवल उनके शरीर से जोड़कर देखता रहा है।

हालही में दिल्ली के महिपालपुर इलाके में चलती बस के भीतर हुई बलात्कार की घटना के कारण कई दिन से मन बहुत व्यथित है। ऐसा लग रहा है जैसे सीने पर बड़ा बोझ है जो मुझे ठीक से सांस भी नहीं लेने दे रहा है। इस समय बलात्कार की शिकार 23 वर्षिया लड़की सफ़दरजंग अस्पताल में पड़ी जाने ज़िन्दगी से जूझ रही है या मौत का सामना कर रही है। लड़की का इलाज कर रहे एक वरिष्ठ डॉक्टर ने कहा है कि “मैंने अपने 20 वर्ष के कार्यकाल में बलात्कार की शिकार किसी महिला की ऐसी दुर्गति नहीं देखी”… लड़की के चेहरे, पेट, आंतों और गुप्तांगो पर बहुत गंभीर चोटें हैं। उसकी आंतों को शल्य-चिकित्सा के ज़रिए काटकर निकाल देना पड़ा है। बलात्कार दिल्ली में अब एक रोज़मर्रा की बात हो चुकी है। बलात्कारी रोज़ बलात्कार करते हैं, महिलाएँ रोज़ हवस का शिकार होती हैं और हम अखबारों में रोज़ इन घटनाओं की खबरें पढ़ते हैं। बलात्कार तो जैसे एक घिनौना जुर्म न होकर दिल्ली की दिनचर्या का सामान्य हिस्सा बन गया है।
मन की इस व्यथित दशा में अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए मैंने पिछले दो-तीन दिन में काफ़ी कुछ लिखा लेकिन फिर उसे डिलीट कर दिया। मुझे लगा कि उस दर्द को जिसे वो लड़की महसूस कर रही है –या उस दर्द को जिसे मैं महसूस कर रहा हूँ -मेरे शब्द उस दर्द को बयान नहीं कर सकते; लेकिन हिन्दी फ़िल्मों में प्रयोग होते आ रहे “इज़्ज़त लुटना” जैसे जुमलों के विरोध में तो मुझे किसी तरह लिखना ही होगा।
हिन्दी सिनेमा ने हमेशा स्त्री की तमाम अस्मिता को जिस तरह उसके शरीर के साथ जोड़कर पेश किया है –उसके गंभीर परिणाम हमारे समाज को भुगतने पड़ रहे हैं। हिन्दी सिनेमा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्त्री-देह के छुपे अंगो को “इज़्ज़त” और “पूंजी” की तरह दिखाता रहा है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि बलात्कार कीअधिकांश घटनाओं में बलात्कारी का मुख्य उद्देश्य यौनेच्छा की पूर्ति नहीं बल्कि स्त्री का अपमान करना और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट देना होता है। असभ्य और राक्षसी-प्रवृत्ति के पुरुषों को एक ही बात समझ में आती है कि किसी का अपमान करने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसकी इज़्ज़त को मिट्टी में मिला दिया जाए –और समाज व सिनेमा से इन हैवानों ने यही सीखा होता है कि बलात्कार करने से स्त्री की “इज़्ज़त” लुट जाती है।
पुरुष को यह किसने सिखाया कि स्त्री को नग्न कर देने या उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बना लेने से उस स्त्री की “इज़्ज़त” को खंडित किया जा सकता है? भारतीय समाज में हमेशा से ही स्त्री को अजीब तरह से देखा गया है। स्त्री को धन और इज़्ज़त का दर्जा भी समाज के पुरुषों ने दिया और उन्हीं पुरुषों ने एक दूसरे को चोट पहुँचाने हेतु उस धन को “लूटा” भी है। कस्बों-कबीलों-जातियों-बिरादरियों में यह हमेशा से होता आया है कि स्त्री को निशाना बनाकर दुश्मन की इज़्ज़त को तार-तार किया जाता है। हमारे सिनेमा ने स्त्री की इसी छवि को आगे बढ़ाया है और इस थीम के आधार पर सैंकड़ों फ़िल्में प्रस्तुत की हैं।
प्रश्न यह है कि क्या स्त्री की इज़्ज़त केवल उसका शरीर होता है? क्या केवल योनी और स्तन ही स्त्री की इज़्ज़त है? उसने जो पढ़ाई-लिखाई की, कार्यक्षेत्र में नाम कमाया, अपने अच्छे व्यवहार से आस-पास के लोगों का मन जीता, उनकी सहायता की, समाज में पहचान बनाई, सेवा की, कष्ट उठाए… क्या ये सब बातें उसकी इज़्ज़त में कुछ भी योगदान नहीं देती? क्या कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त पुरुष उस स्त्री पर स्वयं को थोपकर उसके व्यक्तित्व के इन तमाम आयामों को एक पल में नष्ट कर सकता है?
हिन्दी सिनेमा (और समाज में प्रचलित शब्दावली) की माने –तो हाँ, एक पागल पुरुष द्वारा ज़बदस्ती करने से स्त्री का सम्पूर्ण अस्तित्व “लुट” जाता है!… कैसी घिनौनी और षडयंत्रपूर्ण अवधारणा है न?… मन में प्रश्न आता है कि कहीं समाज ने इस अवधारणा की रचना स्त्री को “काबू” में रखने के लिए तो नहीं की?
बलात्कार एक अत्यंत घिनौना अपराध है। बलात्कार के कारण निश्चित-रूप से स्त्री के शरीर और मन को अकथनीय पीड़ा पहुँचती है –लेकिन उसे यह आधारहीन विश्वास दिलाकर कि उसकी “इज़्ज़त” लुट गई है –हमारा समाज उसकी पीड़ा को असंख्य गुणा बढ़ा देता है। हमारा हिन्दी सिनेमा यही करता आया है। इस सिनेमा ने कभी भी स्त्री को एक शरीर से अधिक कोई महत्त्व नहीं दिया। अधिकांश फ़िल्मी कहानियों में स्त्री की “इज़्ज़त” लुटती दिखाने के बाद पूरी कहानी उस स्त्री के प्रेमी/पति/भाई/पिता इत्यादि पर फ़ोकस कर दी जाती है। इज़्ज़त लूटता भी पुरुष है, बचाने की कोशिश भी पुरुष करता है, ना बचा पाने की स्थिति में बदला भी पुरुष लेता है और बदला लेने के बाद “इज़्ज़तदार” भी पुरुष ही अनुभव करता है… “बेचारी अबला असहाय” स्त्री को तो बस चीखने-चिल्लाने और आंसू बहाने के लिए ही फ़िल्म में जगह दी जाती है।
यदि पुरुष द्वारा ज़बरन शारीरिक संबंध बना लेने से किसी स्त्री की इज़्ज़त लुट जाती है तो पुरुष की इज़्ज़त कैसे बची रह जाती है? ज़बरदस्ती के कारण सम्पर्क में शरीर तो दो आए लेकिन इज़्ज़त एक की ही जाती है!… यह कैसा प्रपंच है?!
हमारे समाज को सत्य स्वीकारना चाहिए और सत्य यही है कि इज़्ज़त हमेशा कर्म से ही होती है। इसलिए बलात्कार में यदि किसी की इज़्ज़त लुटती है तो बलात्कारी की लुटती है। बलात्कार में स्त्री का अपमान होता है, उसके मन व शरीर को चोट लगती है लेकिन उसकी इज़्ज़त, अस्मिता, प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आती।वह अक्षुण और अखंड बनी रहती है। इज़्ज़त बुरा कर्म करने से लुटती है –किसी अन्य के द्वारा किए गए बुरे कर्म का शिकार बनने से नहीं। हिन्दी सिनेमा में कब यह साहस आएगा कि वह सत्य को दिखा सके?
जब तक हम स्त्री को मात्र एक योनी और स्तनों का एक जोड़ा मानते रहेंगे –तब तक हम उसे बराबरी का वो दर्जा कभी नहीं दे पाएंगे जिसकी वह प्राकृतिक और तार्किक रूप से अधिकारी है… समय के आरम्भ से अधिकारी है।

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नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
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