गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

चलो यात्रा यात्रा खेलते हैं

हमारे देश के मानस पर धर्मांधता की इतनी अधिक पकड़ है कि ग़रीबी और विकास जैसे मुद्दे अक्सर इसके सामने गौण हो जाते हैं। धर्म से ग़रीबी नहीं मिटती… भूखे के पेट में अनाज नहीं जाता… बिजली, पानी की व्यवस्था नहीं होती। और वैसे भी कहा गया है कि भूखे पेट न होई भजन गोपाला। भूखे पेट कैसा धर्म, कैसा ईश्वर और कैसी भक्ति? सौ करोड़ से अधिक की आबादी के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था ईमानदारी से काम करने से होगी, मेहनत करने से होगी।

लेकिन हमें तो अपना समय और ऊर्जा धर्मांधता में भी लगानी है… और साथ में देश की ग़रीबी का रोना भी रोना है।
भारत में एक आम आदमी के लिए “अमरीका” सुख-सुविधा के लिए पारिभाषिक शब्द की तरह बन चुका है। हम चाहे जैसे भी हो अपना देश छोड़कर अमरीका के सुखों की छांव में जा बसना चाहते हैं। लेकिन हम यह नहीं सोचते कि अमरीका में इतना विकास हुआ कैसे। हम यह नहीं सोचते कि क्या हम भी अमरीका की तरह अपने देश को सम्पन्न बना सकते हैं? समपन्नता लाने के लिए यात्राएँ निकालने की नहीं वरन काम करने ज़रूरत होती है। महालक्ष्मी की आरती में भी कहा गया है कि लक्ष्मी माँ “कर्म प्रभाव प्रकाशिनी” हैं। लक्ष्मी जी कर्मों के प्रभाव को मात्र प्रकाशित करती हैं –अर्थात वे किसी को उसके कर्मों के अनुसार ही सम्पन्नता देती हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति को चुनने के लिए होने वाले चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के बीच टेलीविज़न पर खुली बहस होती है। वहाँ की दोनों प्रमुख पार्टियाँ भी एक दूसरे की नीतियों को ग़लत ठहराते हुए अपनी नीतियों की तारीफ़ करती हैं –लेकिन वहाँ धर्म कोई मुद्दा नहीं होता। उनकी बहसों, आरोपों, प्रत्यारोपों का आधार विकास, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा, विदेश नीति, उद्योग, शिक्षा और रोज़गार जैसे मुद्दे होते हैं।
इसके उलट भारत में चुनाव धर्म, जाति और क्षेत्रवाद के आधार पर लड़े जाते हैं। चुनाव का समय आया नहीं कि मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ़्त चीज़े बांटी जाने लगती हैं… धार्मिक मुद्दों की आड़ में यात्राएँ निकाली जाने लगती हैं… जो काम पिछले पाँच साल में नहीं किए उनके शिलान्यास और उद्घाटन होने लगते हैं… और भारत की गोलू-मोलू, भोली-भोलू सी जनता यह सब देखते हुए विभिन्न राजनीतिक दलों के पीछे चल पड़ती हैं।
कॉन्ग्रेस ग़रीबी-उन्मूलन के नाम पर चुनाव लड़ती है लेकिन ग़रीबों के लिए कुछ नहीं करती। भाजपा राम के नाम पर चुनाव लड़ती है लेकिन राम के लिए कुछ नहीं करती। 1992 की रथयात्रा को बीस वर्ष से भी अधिक समय हो गया (इस बीच भाजपा की सरकार भी पाँच वर्ष रही) लेकिन मंदिर नहीं बनाया गया।
मुझे इन चुनावी यात्राओं से कोफ़्त है। एक यात्रा महात्मा गांधी ने सबके लिए नमक का अधिकार मांगने हेतु की थी… एक अन्य जुलूस में लाला लाजपत राय के सिर पर लाठी लगी थी क्योंकि वे साइमन कमीशन को भगाना चाहते थे… अन्ना हज़ारे ने अनशन किया क्योंकि वे कॉन्ग्रेस सरकार से लोकपाल बिल चाहते थे –ये सब यात्राएँ / धरने / प्रदर्शन जनता के लिए किए गए थे। लेकिन आजकल जो तथाकथित धर्म संबंधी यात्राएँ निकाली जाती हैं उनमें ग़रीब जनता के लिए कुछ नहीं होता –इन यात्राओं से सिर्फ़ राजनीतिक स्वार्थ साधे जाते हैं और जनता-रूपी भेड़ों को हांका जाता है।
प्रश्न यह है कि हम कब तक हांके जाने के लिए तैयार बैठे रहेंगे… और कब तक राजनीतिक दल हमें मोहरा बनाकर यात्रा-यात्रा खेलते रहेंगे।

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लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती| कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।