शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

भूख भूख भूख ...........5

और एक खास भूख और होती है
जो अपना सर्वस्व खो देती है
फिर भी ना मिलकर मिलती है
प्रेम की भूख 
शाश्वत प्रेम की चाहना 

आदिम युग से अन्तिम युग तक भटकती 
जो मिटकर भी ना मिटती 
जिसकी चाह में 
सृष्टि भी रंग बदलती है


पेड पौधे , पक्षी, प्राणी, मानव, दानव
सभी भटकते दिखते हैं 
निस्वार्थ प्रेम की भूख 
ऐसा आन्दोलित करती है
जो अच्छा बुरा ना कुछ देखती है
बस पाने की चाह में 
वो कर गुजरती है 
कि इतिहास भर जाता है
नाम अमर हो जाता है
मगर प्रेमी जोडा ना मिल पाता है

फिर चाहे मीरा हो या राधा 
लैला हो या हीर 
रैदास हो या तुलसीदास 
कबीर हो या सूरदास 
प्रेम की भूख तो सबसे भयावह होती है 

जो दीदार होने पर और बढती है 
और शांत होकर भी अशांत कर जाती है
कभी विरह में भी सुकून देती है 
और अशांति में शांति का दान कर जाती है 
अजब प्रेम की भूख के गणित होते हैं
जिसके ना कोई समीकरण होते हैं 


और भी ना जाने 
कितने रूपों में समायी है ये भूख
जो शांत होकर भी शांत नहीं होती
क्योंकि
सबके लिये अलग अलग कारण होते हैं भूख के
और सबके लिये अलग अलग अर्थ होते हैं भूख के

जायज नाजायज के पलडे से परे 
भूख का अपना गणित होता है 
जो सारे समीकरणों को बिगाड देता है
इसलिये तब तक भूख के खूँटे से बँधी गाय उम्र भर रंभाती रहेगी 
जब तक कि निज स्वार्थ से ऊपर उठकर 
नैतिक आचरणों और संस्कारों की संस्कृति 
एक नयी सभ्यता को ना जन्म देगी 



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