वो जो शक्ति है
वो जो धारती है
वो जो जननी है
जब उसी का शोषण होता है
तब मेरा स्त्रीत्व रोता है
दूसरी तरफ
वो जो आस्था है
वो जो श्रद्धा है
वो जो विश्वास है
जब वो आहत होता है
सही गलत से परे
एक सोच कसमसाती है
कैसे एक मछली सारे तालाब को
कलंकित करती है
किस पर विश्वास करूँ
किसे नमन करूँ
आज जब चारों तरफ
झूठ और सच
चंद सिक्कों में बिक जाते हैं
कहीं झूठे लांछन लगाए जाते हैं
तो कहीं सच हारता दीखता है
कहीं कोई सिर्फ पैसे , पद , प्रतिष्ठा के लिए
कौड़ियों में बिक जाता है
और किसी का मान सम्मान आहत हो जाता है
ऐसे विरोधाभासी माहौल में
कौन सा इन्साफ का तराजू उठाऊँ
कौन सा जहाँगीरी घंटा बजा न्याय की गुहार करूँ
जहाँ चहुँ ओर अराजकता अव्यवस्था का बोलबाला है
जहाँ न्याय भी अपनी ही बेड़ियों में जकड़ा
बेबस नज़र आता है
और दिमागी तौर से परिपक्व को भी
जो अवयस्कता के आवरण में निर्दोष पाता है
ऐसे कश्मकाशी माहौल में
किस आश्वासन पर उम्मीद का दीप जलाऊँ
जहाँ झूठ और सच के बीच ना कोई फर्क दिखे
जहाँ मेरे अन्दर की स्त्री
छटपटाती तमाशबीन सी सिर धुनती है
आखिर किस खोल में छुप गयी सभ्यता
जो सच और झूठ के परदे ना खोल पाती है
क्या सच क्या झूठ है
जहाँ रोज गवाह भी मुकरते हों
जहाँ रोज कुछ अवसरवादी
सच को झूठ और झूठ को सच में बदलते हों
ऐसे माहौल में
मेरे अन्दर की स्त्री मुझसे ही उलझती है
किसे मानूँ किसे ना मानूँ
ना स्त्री का शोषण झुठला सकती हूँ
ना आस्था की वेदी पर बलि होते
विश्वास और श्रद्धा से आँख मिला पाती हूँ
और सच और झूठ के हवन में होम होती
अपने अन्दर की स्त्री से प्रश्न उठाती हूँ
क्या श्रद्धा और विश्वास की कीमत यूं चुकाई जाती है
क्या स्त्रीत्व के शोषण की जो तस्वीर सामने है
उसका कोई दूसरा रुख तो नहीं
विश्वास अन्धविश्वास की खाई में
मेरी वेदना पड़ी कराहती है
जिसका शायद कहीं कोई उत्तर नहीं , कहीं कोई उत्तर नहीं
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती| कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।